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गुरुवार, 31 मार्च 2011

क्यों गुलमोहर का भरम तोड़ दिया?

जब भी चाहा तुमने
सिर्फ़ देह को चाहा
रूप के सौदागर बने
भोग सम्भोग के पार
ना जाना तुमने
एक नया आकाश
एक नई धरती
एक नयी दुनिया
तुम्हारे इंतजार में थी
मगर तुमने तो
दुनिया के तमाम
रास्ते ही बंद कर दिए
पता नहीं मिटटी में
तुम्हें कौन सा सुख मिला
जो तुम कभी
मूरत तक पहुँच ही नहीं सके
क्या जीने के लिए
सिर्फ देह ही जरूरी थी
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
मगर कभी
अपना लिबास
ना  बदल पाए
और मैं
तुममे
अपना एक
जहान खोजती रही
देह से परे
एक ऐसा आकाश
जिसका कोई
छोर ना हो
जहाँ कोई
रिश्ते की गंध
ना हो
जहाँ रिश्ता
बेनाम हो जाये
सिर्फ शख्सियत
काबिज़ हो
रूहों पर
और ज़िन्दगी
गुजर जाए
मगर सपने
कब सच हुए हैं
तुम भी
वैसे ही निकले
अनाम रिश्ते को
नाम देने वाले
दर्द को ना
समझने वाले
देह तक ही
सीमित रहने वाले
शायद
सबका अपना
आकाश होता है
और दूसरे के आकाश में
दखल देने वाला ही
गुमनाम होता है
जैसे आज तुमने
मुझे गुमनाम कर दिया
जिस रिश्ते को
कोई नाम नहीं दिया था
उसे तुमने आज
बदनाम कर दिया
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया?

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

हाँ, मैं मध्यमवर्गीय इन्सान हूँ

आज सुबह बिटिया का
मासूम सवाल
ह्रदय विदीर्ण कर गया
स्कूल जाती बिटिया बोली
पापा, तुम भी गाड़ी ले आओ
गाडी मे स्कूल छोड आओ
मैं बोला- पैसे नहीं है
वो बोली- पर्स में इत्ते सारे
है तो सही
मैं बोला -इससे काम नहीं चलेगा
ज्यादा पैसे लाने होंगे
वो बोली - तो क्या हुआ
"फिर मेरी गुल्लक फोड़ दो ना ........."
ये शब्द ह्रदय वि्दीर्ण कर गये
उसके शब्दों ने आईना दिखा दिया
मुझे मेरी मजबूरियों से मिला दिया
कैसा मजबूर बाप हूँ मैं
इसका अहसास करा दिया

बिटिया की मासूमियत ने
मुझको घायल कर दिया
आँखें मेरी नम कर गया
कैसे उसको समझाता
और समझा भी देता
मगर खुद को कैसे बहलाता
सच से कैसे नज़रें चुराता
खुद को लानत भेज रहा हूँ
जब से बिटिया ने कहा है
गुल्लक फोड़ दो मेरी
आह! कैसा मजबूर बाप हूँ
इक छोटी सी हसरत भी
पूरी ना कर सकता हूँ
वक्त ऐसा क्यूँ आता है
या खुदा !


सोचता था
जब आँगन में
उतरी थी मासूम कली
हर चाहत को उसकी
परवान चढ़ा दूंगा
हर हसरत पर उसकी
खुद को मिटा दूंगा
मेरे लिए आसमां  से
फ़रिश्ता उतरा था
मगर ये ना पता था
वक्त का बेरहम पंजा
ऐसे जकडेगा मुझे
एक छोटी सी हसरत
बिटिया की 

लहूलुहान कर जाएगी
आँख में आँसू भर जाएगी
वक्त ऐसा क्यूँ आता है
कभी मिला खुदा से
तो पूछुंगा जरूर!

अब बैठा सोचता हूँ
हर हसरत सबकी
कब पूरी होती है
ऐसा सच उसे भी
समझाना होगा
या फिर किस्मत से
लड़ जाना होगा
और बेटी की ख्वाहिश को
आकार देना होगा
मगर मासूम दिल
क्या ये सब समझ पायेगा
जब अब तक खुद को ही
ना समझा पाया हूँ
कभी खुदा पर तो कभी
किस्मत पर दोष लगाता हूँ
हकीकत से सामना
ना कर पाता हूँ
ज़िन्दगी को मुस्कुरा के
ना जी पाता हूँ
फिर कैसे उसे समझाऊंगा
या फिर कैसे किस्मत से
लड़ जाऊँगा
ये सोच सोच घबराता हूँ

एक ख्याल दिल में
जन्म लेता है
बच्चे कितने मासूम होते हैं
कैसी मासूमियत से
सब कह देते हैं
अपने पराये में भेद
नहीं करते हैं
आसानी से गुल्लक
फोड़ने की कही बात
क्या ऐसा तब हो सकता है
जब बच्चा बड़ा हो जाता है
शायद तब तक वो
पैसे का अर्थ समझ जाता है
हर चीज़ का मोल लगाना
सीख जाता है
काश ! सब बच्चे ही होते
निश्छल मासूम बच्चे
गुल्लक संभाले हसरतों की
फिर दिल ना ऐसे
चीत्कार करता
एक मध्यमवर्गीय इंसान का

हाँ, मैं मध्यमवर्गीय इन्सान हूँ
अपनी इच्छाओं को समेटे हुए
मगर बच्चों की हसरतों का क्या करूँ?


मंगलवार, 22 मार्च 2011

तुम कब आओगे?

बहुत दिन हुए
तुम नही उतरे
मेरे धरातल पर
देखो तुम्हारे
इंतज़ार मे
मौसम भी
ठहर गया है
मधुमास अभी
बीता नही है
पनघट अभी
रीता नही है
भ्रमर किलोल
कर रहा है
मन मयूर भी
डोल रहा है
पीहू पीहू
पपीहा बोल रहा है
ॠतुराज  भी
फ़ाग को
आलिंघनबद्ध किये
कब से खडा है
कब आओगे सजन
देह की देहरी से
मन की डगर तक
कब आओगे सजन
तुम कब आओगे?

शनिवार, 19 मार्च 2011

ये हमको क्या होने लगा है


होली का रंग असर करने लगा है

सुरूर सा दिल पर चढने लगा है

बिन पिये भांग का असर होने लगा है

बलम जी ये हमको क्या होने लगा है



ये कैसी बयार चलने लगी है 


उमंग सी दिल मे मचलने लगी है


तुम संग फ़ाग खेलन को बलम जी

जियरा हमरा मचलने लगा है





अबीर गुलाल लगाये बहुत हैं

फ़ाग भी सखियों संग खेले बहुत हैं

तुम्हारे रंग मे भीगने को बलम जी

तुम्हे रंगों मे भिगोने को बलम जी

प्रेम रस मे डुबोने को बलम जी

इक नयी शरारत करने को बलम जी

जियरा हमरा मचलने लगा है

ये हमको क्या होने लगा है

ये हमको क्या होने लगा है


मंगलवार, 15 मार्च 2011

सखी कह तो कैसे मैं होली मनाऊँ ?

मन मयूर अभी तक
नाचा ही नहीं
कोई चाहत कोठे
चढ़ी ही नहीं
कोई रंग मन को
भाया ही नहीं
उमंग दिल में कोई
उठी ही नहीं
सागर ने कोई
तटबंध तोडा ही नहीं
ना जाने कैसे
इतना निर्जीव
 स्पन्दन्हीन
हो गया है ये मन
सखी , देख तो
होली का कोई रंग
अब तक चढ़ा ही नहीं

कभी देखा है तूने
ठंडी लाश पर
रंग चढ़ते हुए
किसी बुझे चराग को
फिर से जलते हुए
कभी किसी दरख्त पर
टूटा पत्ता दोबारा
लगते हुए देखा है ?
नहीं ना ..............
फिर कह तो
कैसे होली मनाऊँ

कौन से रंग से
मन आँगन भिगाऊँ
कौन सा अबीर
गुलाल लगाऊं
जो मृत अरमानो को
एक बार फिर
संजीवनी मिल जाये
होली का कोई
रंग इन पर भी
चढ़ जाये 
क्या मरा हुआ
कभी कोई
ज़िन्दा हुआ है
बोल ना सखी
कैसे होली मनाऊँ

किसके नेह के
मेह जल से
मेरा मन भीगेगा
कौन से टेसू के फूल
अर्पण करूँ कि
मन आँगन हुलसाने लगे
क्या देखा है तूने कभी
डाली से टूटे
मुरझाये , कुचले , मसले
गुलाब को फिर से
खिलते हुए
बता फिर कैसे 
मेरा मन दोबारा
धरती का सीना
चीरकर लहलहाए
क्या बंजर भूमि भी
कभी उपजी है ?
बोल ना सखी
कैसे किसके संग
किसके लिए
होली मनाऊँ

जहाँ प्रीत का
कोई अंकुर
कभी फूटा ही नहीं
फिर कैसे मन को
बहलाऊँ
कौन सा प्रलोभन दूं
कैसे आस का
एक बीज उगाऊं
सखी कह तो
कैसे मैं
होली मनाऊँ ?

रविवार, 13 मार्च 2011

संकेत या संदेश ?

वो कहते हैं
बन जाओ
तुम भी
फूहड़
ओढ़ लो
विसंगतियां
ज़माने की
तुम भी लिखो
कुछ ऐसा
जिसमे
उन्माद हो
तुम भी करो
कुछ ऐसा
जिसमे
दोहन हो
तुम भी करो
कुछ ऐसा
जिसमे
विध्वंस हो
बन जाओ
विस्फोटक
और करो
एक बार फिर
नव काव्य सृजन
जिसमे
शिव का तांडव हो
कामदेव का संहार हो
मृदु मधुर
गीतों का ना
समन्वय  हो
आग्नेय लफ़्ज़ों
का प्रहार हो
काम दीप्त ना
उद्दीप्त हो
कंटकाकीर्ण
बाणों का
प्रहार हो
हवाएं तप्त
हो जायें
आसमां दग्ध
हो जायें
सारे मौसम
विलुप्त हो जायें
बस सिर्फ
एक ही मौसम का
साम्राज्य हो
चहुँ ओर
पतझड़ का
आगाज़ हो
पीले पत्ते
सारे झड़ जायें
विष भरे
सभी स्रोत
लुप्त हो जायें
तोड़ देना
मर्यादाएँ
सीमाएं
बँधन
कर देना
इक ऐसा सृजन
फिर ना
विषबेल बढ़ पाएं
प्रलयंकारी
बन जाना
अब ना रोगाणु
पनपने देना
वक्त का
इंतज़ार मत करना
वक्त को तुम ही
पलट देना
देखना फिर
प्रलय के बाद
शुद्ध सात्विक
शांत प्रकृतिस्थ
स्वरूप
नव पल्लव
खिलने लगेंगे
नव सृजन
होने लगेंगे
नव युग का
निर्माण तुम
कर देना
अब ना किसी
देव का
इंतज़ार करना
स्वंय को स्वंय मे
समाधिस्थ कर लेना
और पूर्ण को
पूर्ण मे
स्थापित कर लेना


पता नहीं दोस्तों , ये कविता क्यों लिखी गयी .........अभी 9 तारीख को ही लिखी  थी ..........शायद ईश्वर का कोई सन्देश था इसमें तभी ऐसी कविता लिखी गयी ............शुक्रवार को सुबह से आंसू झर झर बह रहे थे मगर समझ नहीं आ रहा था क्यों ऐसा हो रहा है ? कभी कभी अनहोनी की आशंकाएं हमें पहले ही सूचित कर रही होती हैं मगर हम ही उसका इशारा समझने में सक्षम नहीं हैं .........उस दिन बस सुबह से ये हाल था तो एक रचना भगवान को समर्पित की जिसमे उससे मिलने की पुकार थी वो मैंने फेसबुक पर लगायी ..........इतनी बेचैनी थी कुछ लोगों से वहां बातचीत होती रही और उस दिन वहां ज्यादातर भगवान की सत्ता की ही बात होती रही वर्ना फेसबुक पर कहाँ ऐसी बातें होती हैं और थोड़ी देर में ही ये खबर मिल गयी कि जापान में कुदरत ने अपना कहर बरपाया है ............उसके बाद का तो सबको मालूम है मगर न जाने क्यों ऐसा लगता है कि कई बार ईश्वर हमें संकेत देता है तभी ऐसा सृजन हो पाता है ......... और ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है ........मैं नहीं जानती क्यूँ मगर मेरे साथ होता है ..........आज से कई साल पहले जब २ ट्रेन टकराई थीं और काफी लोग मारे गए थे तब भी मैं इतनी ही बेचैन हुयी थी ......और तब से रोज सुबह भगवान से पहली प्रार्थना यही करती हूँ कि भगवान दुनिया में सब तरफ सुख शांति बनी रहे ............शायद कोई संकेत है ये ऊपर वाले का हम सबको .....हो सकता है सबके साथ ऐसा होता हो ..........और आज अभी हिंदुस्तान पेपर में बिरला फ़ाउंडेशन पुरस्कार से सम्मानित विश्वनाथ जी कि कविता पढ़ी उसमे भी यही दर्शाया गया था कि "सब कुछ मिट जायेगा , क्यों होगा , कैसे होगा, नहीं पता मगर होगा और इसका पता मुझे तो नहीं है मगर जब मैं मिट जाऊंगा तब भी कुछ बाकी रह जायेगा और जो रह जायेगा वो ही बताएगा कि क्या बचा" ............शायद बिलकुल सच है ये .........आज देखो जापान में जो हुआ है वो शायद इसी का संकेत है कि हमेशा जब भी कुदरत का प्रकोप हुआ है तो सब कुछ मिटने के बाद भी कुछ बाकी बचता है और वो ही आगे की नव सृजन की नींव रखता है.

बस अब यही प्रार्थना है कि कुदरत अब रहम करे और जापानवासियों  को  इस संकट की घडी में हौसला प्रदान करे .

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

एक रेखा खींच लेता हूँ……………

इन दिनों
अघटित भी देख लेता हूँ
मानव हूँ ना
एक रेखा खींच लेता हूँ




बेध्यानी की खाद में
अंकुर नए उगाता हूँ
और अपने बेपरवाह
ख्यालो को सींच लेता हूं
जब भी कुछ
अघटित देख लेता हूँ
मानव हूँ ना
एक रेखा खींच लेता हूँ


संवेदनाओ की गिरह
बाँध लेता हूँ
और खुद से ही जूझ जाता हूँ
मुखर नहीं हो पाता हूँ
मानव हूँ ना
आत्मयंत्रणा  की
एक रेखा खींच लेता हूँ


विद्रोह के स्वर भींच लेता हूँ
चीख की चिंगारी को
हवा भी दे देता हूँ
मगर सच से मुँह
चुराता हूँ
मानव हूँ ना
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ

बुधवार, 9 मार्च 2011

सफ़र जारी रहता है ...........

कभी कभी
दिल चाहता है
कोई हो ऐसा
जो गले लगा ले
अपने अंक में समा ले
हर गम को जो पी ले
मगर वो कोई
कभी किसी को
मिलता ही नहीं
जाने ऐसी चाहत
क्यूँ मचलती है

एक ख्वाब दिल में पलता है

कोई हो जिसके गले लगकर
हर गम भुलाया जा सके
कहीं रूह यूँ  ही
प्यासी ही ना रह जाए
फिर किसी जन्म में
कोई मिले ना मिले
मुलाकात  हो ना हो
उससे पहले इसी जन्म में
किसी के गले लगकर
अपनी हर उदासी
हर चाहत
हर आरजू
हर तमन्ना
पूरी कर ली जाए
दूसरे जन्म की
चाहत ही ना रहे
हर तमन्ना इसी जन्म में
पूरी हो जाएँ
मगर ऐसा कब हुआ है यहाँ
हर कोई तो प्यासा ही गया है
शायद किसी को भी
आसमां नहीं मिला है
जिसके सीने पर अपने
आँसू बहा दिए जाएँ
और वो सब अपने
विस्तृत आकाश में
हर गम समेट ले

एक अधूरी आरजू

एक अधूरी ज़िन्दगी
एक अधूरी तमन्ना
एक अधूरा ख्वाब
और जी लेते हैं हम
आधे अधूरे से
आधी अधूरी सी ज़िन्दगी
और चल देते हैं
अपनी अधूरी
आकांक्षाओं के साथ
दूसरे पड़ाव की ओर
एक चाहत में
कोई तो होगा
जो कभी तो मिलेगा............
सफ़र  जारी रहता है ...........

सोमवार, 7 मार्च 2011

अयोग्य घोषित कर दिया गया?

हर विधा में पारंगत थी 
आसमानों को छूती थी 
हर क्षेत्र की ज्ञाता थी
सबके मन को भाती थी
नित नए सोपान गढ़ती थी
दिलों पर राज़ करती थी
किसी से कुछ न कहती थी
बस कर्तव्यपालन करती रहती थी
तो हर शख्स की आँख का तारा थी
आखिर धुरी जो थी घर की
मगर इक दिन ऐसा भी आया 
जब खुद को उसने 
कटघरे में खड़ा पाया 
सोच में पड़ गयी थी
जीवन के हर क्षेत्र में 
महारत हासिल करते हुए
हर कर्तव्य खूब निभाया
कभी न अनर्गल प्रलाप किया
आत्मावलोकन करती रही
खुद को हर पल छलती रही
और दुनिया की कसौटी पर
खरी उतरती रही 
हर मोर्चे पर डटी रही
सबसे सम्मानित भी होती रही 
फिर चूक कहाँ पर कैसे हुयी
शायद उसका 
पुरुषवादी व्यक्तित्व
न स्वीकार हुआ 
फिर भी उसने कभी न उफ़ किया
इन दोहरी मानसिकता के 
गुलामों को हमेशा 
कमी उसमे ही दिखती रही
आखिर ज़िन्दगी भर उसने
हर दायित्व खूब निभाया
हर कर्त्तव्य को अंजाम दिया
और अब तो उम्र के 
उस मुकाम पर आ गयी
जहाँ कर्तव्यों की
इतिश्री हो गयी
फिर कैसे उसे
अयोग्य घोषित कर दिया गया?
इस प्रश्न में उलझ गयी 
शायद!
अब वो खुद के लिए 
जीने लगी थी इसलिए?     

शनिवार, 5 मार्च 2011

धड़कती तो हूँ ...........

धड़कती तो अब भी हूँ
किसी खास आहट पर
पिघलती तो अब भी हूँ
किसी खास तपिश पर
मगर अब सब होता है
सिर्फ अहसासों में
हकीकत के धरातल पर
सिर्फ राख़ बची है
तो राख़ में कहाँ स्पन्दन?
ओ मेरे अहसास!
तुझ में जीना जैसे
बँधन  मुक्त हो जाना
तुम जो मुझे बांध रहे हो
एक अनदेखे 
अनजाने बँधन में
मगर फिर भी वहाँ
बँधन नहीं दीखता
एक अहसास ..........सुखद
चाहे क्षणिक ही सही
मगर अहसास की गर्माहट
उसकी जीवन्तता
जिला देती है
मृत्युशैया पर पड़े
जर्जर शरीर को
दो बूँद गंगाजल
नेह का जब टपकता है
तब जीवंत हो जाता है
हर स्पंदन
हर अहसास
जीने की ललक
जागने लगती है
हाँ ! धड़कती तो हूँ
फिर चाहे अहसासों में ही सही
किसी की चाहतों में ही सही
किसी के गीतों में ही सही
किसी की निगाहों में ही सही
कुछ पल जीने की आरजू
इसी तरह पूरी कर लेती हूँ
और कुछ पल के लिए ही सही
खुद पर गुमाँ कर लेती हूँ
धड़कती तो हूँ ...........है ना !

बुधवार, 2 मार्च 2011

कौन हूँ मै?

मै
तेरे सामने
तेरी जीवन्त 

मुस्कान बन
तेरे लफ़्ज़ो की 

पह्चान बन
एक कविता बनी
मगर मुझे मेरी कभी
पह्चान ना मिली

हर हर्फ़ मे तेरे

तेरा दर्द बनी
कभी तेरे प्रेम की
ताबीर बनी
मगर मुझे मेरी कभी
पह्चान ना मिली

तूने तो स्वंय को

मुझमे अभिव्यक्त
कर दिया
अपने स्वरूप को
आकार दे दिया
मगर मेरी पहचान
मुझमे खो गयी
वो तो सिर्फ़ तेरी
गज़ल, तेरी कविता
तेरी ही शायरी बनी
मगर मुझे मेरी पह्चान
कही नही मिली

अब बता

 ए दोस्त
ए शायर
ए हमदम
मेरा वजूद क्या है?
तेरी कविता?
तेरे ख्याल?
या तेरी सांसो मे
महकते मेरे
सपने?
कौन हूँ मै?
अभिव्यक्त कर मुझे भी

 तेरी शायरी की आत्मा
या जीवन्त निष्प्राण 
एक विषय वस्तु
कौन हूँ मै?